रोहिंग्या जनसंहार पर चुप रहने वाले म्यांमार के लोग अब सडकों पर क्यों उतरे हैं, यह फसल इन्हीं की तो बोई हुईं हैं..??

🔹बोया पेड़ बबूल का तो फल कहाँ से खाओगे, यह कहावत म्यांमार के लोकतंत्र पर फिट बैठती है,

Word news: म्यांमार मे लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार का सेना ने तख्तापलट कर दिया, और म्यांमार की नेता आंग सांग सू की को कैद कर लिया गया, अब म्यांमार की जनता सेना के ख़िलाफ सड़को पर उतर आई है।

Voice Of America के हवाले से प्राप्त यह तस्वीर म्यांमार के शहर मांडले की हैं जहां म्यांमार की जनता सेना के खिलाफ प्रदर्शन कर रही है, और लोकतंत्र बहाली की मांग कर रही है। प्रदर्शनकारियों में बड़ी संख्या युवा वर्ग की है।

म्यांमार में तख्तापलट करने वाला जनरल मिन आंग लाइंग एक समय तक आंग सांग सू की का विश्वासपात्र हुआ करता था, अब उसी जनरल मिन ने म्यांमार में तख्तापलट करके सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया।

हालांकि म्यांमार में यह पहली बार नहीं हुआ है, जब सेना ने सत्ता पर कब्ज़ा किया हो, इससे पहले दो बार सेना ने इसी तरह सत्ता कब्ज़ाई है। लेकिन वह दौर सूचना क्रांति का दौर नहीं था, चूंकि अब सूचना क्रांति का दौर है तो इसलिये सेना के लिये सत्ता चलाना मुश्किल लग रहा है।

युवा वर्ग का सड़कों पर उतरकर सैन्य शासन के खिलाफ प्रदर्शन करना साफ इशारा कर रहा है कि म्यांमार एक बार फिर हिंसा लपटों में झुलसने जा रहा है, असल सवाल तो अब उठना चाहिए कि लगभग तीन वर्ष पूर्व 2017 में जब बहुसंख्यकवाद से ग्रस्ता म्यांमार के लोकतंत्र में रोहिंग्या जनसंहार हुआ तब म्यांमार का यह वर्ग कहां सो रहा था?

बीते आठ वर्षो में म्यांमार में समय-समय पर बौद्ध चरमपंथियों द्वारा रोहिंग्या का जनसंहार किया गया। बौद्ध चरमपंथियों को सेना को सेना का संरक्षण प्राप्त था, जिस पर म्यांमार की प्रमुख नेता आंग सांग सू की ने चुप्पी साधे रखी। 2017 में ही म्यांमार से इस सदी का सबसे बड़ा विस्थापन हुआ, लगभग सात लाख रोहिंग्या मुस्लिम समुंद्री रास्ते से होते हुए बंग्लादेश, थाईलैंड में जाकर शरणार्थी बन गए।

🔹जिस देश में क़ानून को ताक पर रखकर बहुसंख्यकवाद से प्रेरित होकर निर्णय लिये जाते हैं, वहां न सिर्फ मानवाधिकारों का हनन होता है बल्कि धीरे-धीरे लोकतंत्र भी खत्म हो जाता है।

रोहिंग्या की बड़ी तादाद इन दिनों बंग्लादेश में है रोहिंग्या जनसंहार करने वाले बौद्ध चरपंथियों को सेना का संरक्षण प्राप्त था, और सेना की इस मानवता विरोधी क्रूरता पर म्यांमार की सरकार और म्यांमार का बहुसंख्यक समाज चुप्पी साधे हुए था। अब चूंकि म्यांमार में रोहिंग्या नहीं हैं, इसलिये म्यांमार की वे समस्या भी समाप्त हो जानी चाहिए थीं, जिनका कारण कथित तौर से रोहिंग्या हुआ करते थे। क्या वे कथित समस्या खत्म हुईं?

जिस सेना ने रोहिंग्या का जनसंहार कराया, वही सेना म्यांमार की सत्ता पर काबिज़ हो गई, ऐसा सिर्फ इसलिये हुआ क्योंकि म्यांमार के बहुसंख्यक समाज ने उस अत्याचार पर चुप्पी साधे रखी जो दुनिया की सबसे दयनीय स्थिती में जीने वाली प्रजाति (रोहिंग्या मुस्लिम) पर किया गया था।

म्यांमार में ऐसा ही हुआ है। अगर म्यांमार का बहुसंख्यक बौद्ध समाज रोहिंग्या को भी अपना नागरिक स्वीकार कर लेता, और उसके जनसंहार के ख़िलाफ प्रदर्शन करता, विरोध करता, आंदोलन करता तो बहुत मुमकिन था कि म्यांमार में जो तख्तापलट हुआ वह नहीं होता।

लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि, जिस बौद्ध दक्षिणपंथी अशीन विराथु के नेतृत्व में रोहिंग्या का जनसंहार किया गया, उसे सेना ने संरक्षण दिया, म्यांमार के जनरल मिन आंग लाइंग को सरकार ने मौनसमर्थन दिया, और सरकार को म्यांमार के समाज का समर्थन रहा।

आज म्यांमार का वही समाज, और सरकार दोनों ही मुसीबतों से घिर गए हैं। आप चाहें तो कह सकते हैं कि म्यांमार के समाज ने अपने लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद से बीमार बनाकर मौजूदा म्यांमार का भविष्य खुद ही लिख दिया था।

स्वतंत्र पत्रकार वसीम अकरम त्यागी का क्रांतिकारी लेख..

Wasim Akram Tyagi
Aasid Aasid

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