115 साल पुरानी है शर्बत रूह अफज़ा की कहानी, जानिए रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी

🔹रूह अफज़ा 1907 में दिल्ली में लाल कुँए में स्थित हमदर्द दवाखाने में ईजाद हुआ इसके ईजाद होने की कहानी ये है,

बात सन् 1906 की जब है पूरा देश भयंकर गर्मी और लू में झुलस रहा था. इसी गर्मी की चपेट में राजधानी दिल्‍ली भी आई. कई लोग बीमार हुए और लू की वजह से उनकी तबीयत बिगड़ गई. इसी गर्मी के मौसम में लोगों को लू से बचाने के लिए यूनानी दवाईयों के जानकार हकीम अब्दुल मजीद ने एक खास ड्रिंक सबके सामने पेश किया ।

गाजियाबाद में रहने वाले हकीम अब्दुल मजीद ने दावा किया कि उनका यह शरबत लोगों को गर्मी से बचाने में कारगर है. वह पुरानी दिल्‍ली के लाल कुंआ बाजार में इसे बेचते थे. कहा जाता है तब इसे लेने के लिए कई बार लंबी लाइने लग जाती थी.

पीलीभीत में पैदा होने वाले हाफिज़ अब्दुल मजीद साहब दिल्ली में आ कर बस गए. यहां हकीम अजमल खां के मशहूर हिंदुस्तानी दवाखाने में मुलाज़िम हो गए. बाद में मुलाज़मत छोड़ कर अपना “हमदर्द दवाखाना” खोल लिया.

हकीम साहब को जड़ी बूटियों से खास लगाव था. इसलिए जल्द ही उनकी पहचान में माहिर हो गए. हमदर्द दवाखाने में बनने वाली सब से पहली दवाई ‘हब्बे मुक़व्वी ए मैदा” थी.उस ज़माने में अलग अलग फूलों, फलों और बूटियों के शर्बत दसतियाब थे. मसलन गुलाब का शर्बत, अनार का शर्बत वगैरह वगैरह.

हमदर्द दवाखाने के दवा बनाने वाले डिपार्टमेंट में सहारनपुर के रहने वाले हकीम उस्ताद हसन खां थे जो एक माहिर दवा बनाने वाले के साथ साथ अच्छे हकीम भी थे. हकीम अब्दुल मजीद साहब ने उस्ताद हसन से ये ख्वाहिश ज़ाहिर की कि फलों, फूलों और जड़ी बूटियों को मिला एक ऐसा शर्बत बनाया जाए जिसका ज़ायक़ा बे मिसाल हो और इतना हल्का हो कि हर उम्र का इंसान पी सके.

उस्ताद हसन खां ने बड़ी मेहनत के बाद एक शर्बत का नुस्खा बनाया. जिसमें जड़ी बूटियों में से “खुर्फा” मुनक्का, कासनी, नीलोफर, गावज़बां और हरा धनिया, फलों में से संतरा, अनानास, तरबूज़ और सब्ज़ियों में गाजर, पालक, पुदीना, और हरा कदु, फूलों में गुलाब, केवड़ा, नींबू, नारंगी जबकि ठंडक और खुश्बू के लिए सलाद पत्ता और संदल को लिया गया.

कहते हैं जब ये शर्बत बन रहा था तो इसकी खुशबू आस पास फैल गयी और लोग देखने आने लगे कि क्या बन रहा है! जब ये शर्बत बनकर तैय्यार हुआ तो इसका नाम रूह अफज़ा रखा गया. रूह अफज़ा नाम उर्दू की मशहूर मसनवी गुलज़ार ए नसीम से लिया गया है जो एक किरदार का नाम है. इसकी पहली खेप हाथों हाथ बिक गयी.

रूह अफज़ा को मक़बूल होने में कई साल लगे. इसका ज़बर्दस्त प्रचार कराया गया. और आज रूह अफज़ा दुनिया का सब से पसंदीदा शर्बत है कहते हैं कि पहले शुरुआत में हकीम अब्दुल मजीद इसे बोतल में नहीं देते थे. बल्कि इसे लेने के लिए लोग घर से ही बर्तन लेकर जाते थे. दवाखाने पर रोजाना इतने लोग पहुंचते थे कि हकीम अब्दुल मजीद के दोनों बेटे भी अपने अब्बा के साथ ही काम करने लगे और पिता के व्यवसाय में हाथ बटाने लगे.

सन् 1920 में हमदर्द दवाखाना को एक कंपनी में बदल दिया गया. तब तक हकीम अब्दुल मजीद का भी निधन हो गया था. उनकी मृत्‍यु के बाद उनके दोनों बेटे अब्दुल हमीद और मोहम्मद सईद कंपनी को चलाने लगे.

सन् 1947 में देश के विभाजन के वक्त रूह अफ्जा बनाने वाली हमदर्द कंपनी दो हिस्सों में बंट गई. छोटे भाई मोहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए और उन्होंने कराची में हमदर्द की शुरूआत की. पाकिस्तान में भी रूह अफ्जा भी काफी मशहूर है. जबकि बड़े भाई अब्दुल हमीद मां के साथ हिन्‍दुस्तान में ही रह गए और यहां का कारोबार देखने लगे.

हकीम अब्दुल मजीद के बेटों ने हमदर्द लैबोरोट्रीज भारत, हमदर्द लैबोरेट्रीज पाकिस्‍तान की शुरुआत की. साथ ही हमदर्द लैबोरेट्रीज़ बांग्‍लादेश की भी शुरुआत हुई. सन् 1948 से कंपनी भारत, पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में प्रोडक्‍ट्स मैन्‍युफैक्‍चर रही है।

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