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ज्ञानवापी विवाद पर रवीश कुमार का तंज, ज़मीन के नीचे कुछ है, इसका मतलब ही है कि दिमाग़ के भीतर कुछ नहीं है

हर भारतीय को शक हो गया है कि ज़मीन के नीचे कुछ है। शक की इस बीमारी को होने से कोई नहीं रोक सकता है। इसके लिए कोई टीका नहीं है। मास्क भी नहीं है।जिन लोगों को शक नहीं हुआ है, उन्हें गोदी मीडिया देख कर यकीन हो गया है कि ज़मीन के नीचे कुछ तो है। जिनके पास कुछ काम नहीं है,उन्हें भी ज़मीन के नीचे कुछ खोजने का काम मिल गया है। लोग उत्खनन के लिए इतने उत्साहित हैं कि कहीं भी खोद डालना चाहते हैं। खोदने के लिए याचिका दायर कर देते हैं। बयान दे डालते हैं। उन्हें कोई यकीन नहीं दिला सकता है कि ज़मीन के नीचे कुछ नहीं है। ऐसा करना ग़लत भी होगा।

हर भारतीय जानता है कि ज़मीन के नीचे कुछ न कुछ होता ही है। ज़रा सी खरोंच पर गुटका का पैकेट निकल आता है। फ्रूटी का पैकेट दबा मिलता है और प्लास्टिक की पन्नी मिट्टी में धंसी मिलती है। पुरानी डायरी, किताब का कवर, बेल्ट का टुकड़ा, शैम्पू का ढक्कन, ज़मीन की खुदाई से कितना कुछ निकल आता है। इन सभी को झाड़ने के बाद ही मिट्टी अलग होती है। पड़ोसी की नज़र से बचाकर फेंके सारे कचरे ज़मीन के नीचे ही तो धंसे हैं।अगर, कोई भारतीय इसे खोद निकालना चाहता है तो उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। खुदाई शुरू होती ही इतनी सारी चीज़ें मिलने लग जाती हैं कि लोगों को लगता है कि ज़मीन के नीचे कुछ है। इसलिए वे हर उस जगह की खुदाई करना चाहते हैं, जहां उन्हें लगता है कि ज़मीन के नीचे कुछ है।

अगर आपको लगता है कि किसी की इमारत के नीचे कुछ है तो आप ग़लत नहीं हैं। जब इतने लोग ग़लत नहीं हैं तो आप कैसे ग़लत हो सकते हैं। आपको जब भी ग़लत लगे तब समझ जाइये कि आप सही हैं। आप किसी का घर खोल कर देख सकते हैं, उसके घर के नीचे खुदाई कर सकते हैं। जब तक फ्रूटी का पैकेट और गुटके की पन्नी नहीं मिल जाए, मोहल्ला का मोहल्ला खोद डालना है। अगर किसी को शक हो जाए कि आपके घर के नीचे कुछ हैं तो अपना घर भी खोद लेने दीजिए। इस तरह विशाल भू-खंड की खुदाई हो जाएगी। ज़मीन के नीचे जो भी होगा, एक ही बार में बाहर आ जाएगा। ऐसा हो ही नहीं सकता है कि कुछ नहीं मिलेगा। प्लास्टिक का टूथ ब्रश या फिर किसी की चप्पल का टुकड़ा तो मिलेगा ही। इसलिए खुदाई की मांग बेकार नहीं है।

इस देश में जब किसी की भी ज़मीन पर कब्ज़ा हो सकता है, किसी के घर को ढहा दिया जा सकता है तो ऐतिहासिक इमारतों के साथ भी हो सकता है। बहुत दूर की बात नहीं है जब एक इमारत को ढहा दिया गया था। ऐतिहासिक इमारतों को खोद कर देखने वाले, उनकी ईंटें खिसका कर देखने वाले काफी सभ्य हैं। गनीमत है कि ये लोग उस इमारत को ढहाने के लिए जमा नहीं हुए हैं।वर्ना तो इनका सारा अनुभव ढहाने का ही है। खोदने का अनुभव तो है ही नहीं। एक मुद्दे को लेकर पचीस साल काट देने वाले लोग अब पांच मिनट में उस तरह के पचासों मुद्दे पैदा कर डालते हैं और गोदी मीडिया के ज़रिए घर-घर पहुंचा देते हैं। उन्हें दावा करने और हंगामा करने से कोई नहीं रोक सकता है।

ऐसे लोगों को पता है कि जब ज़मीन के नीचे से कोयला,हीरा, तांबा, लोहा, यूरेनियम जैसे पदार्थ निकाले जा सकते हैं तो ऐतिहासिक इमारतों की खुदाई से भी कुछ न कुछ निकलेगा। इन्हें मालूम है कि खुदाई से ही इतिहास के अवशेष निकलते हैं। शिलालेख और भग्नावशेष निकलते हैं।अस्थियां और बस्तियां निकलती हैं। जब पहले निकला है तो अब क्यों नहीं निकलेगा? इसलिए, इस काम के लिए नए-नए संगठन हर दिन निकल कर सामने आ रहे हैं। ऐसे लोग कहां से निकल आते हैं, यह सवाल उसी तरह बेतुका है कि कोयला कहां से निकल आता है।खदान काफी बड़ा है और ऐसे हीरों की कमी नहीं है।

आपको जहां कहीं भी लगे कि यहां कुछ हो सकता है, खुदाई कर डालिए। खुदाई के दौरान कोई इमारत गिर जाए तो चिन्ता न करें। पचास-साठ साल के लिए वहीं छोड़ दें और फिर उस जगह की खुदाई करें, वह इमारत भी निकल आएगी। मेरी मांग है कि नगर-नगर में खुदाई जत्था बनाया जाए जिसे अधिकार मिले कि जहां भी लगे कि ज़मीन के नीचे कुछ हो सकता है, वह खुदाई की जाएगी ताकि यह शक दूर हो जाए कि ज़मीन के नीचे कुछ था। इस देश में इतनी अफवाहें फैल चुकी हैं कि उनकी पुष्टि के लिए खुदाई बहुत ज़रूरी है। तर्कों और संदर्भों से इतिहास का फ़ैसला नहीं हो सकता। खुदाई और कुदालों से होगा। आइये, खोदने का अभियान शुरू करते हैं। जो जगह खुद चुकी है, उसे भी खोद डालते हैं। जो नहीं खुदी है, उसे खोदने के लिए बहस पैदा कर देते हैं। ज़मीन के नीचे कुछ है, इसका मतलब ही है कि दिमाग़ के भीतर कुछ नहीं ह

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