▪️11 मई 1859 को शहीद होने वाले जनरल बख्त खान आजादी के अमृत महोत्सव से गायब हैं!
1857 में दिल्ली से लेकर पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाले इस वीर को मौत भी मिली तो वतन से बहुत दूर। वहां जहां इसकी कुर्बानी को कोई याद करने वाला भी नहीं। कब्र पर जाकर कोई फूल चढ़ाने वाला भी नहीं। इसी पर बहादुर शाह जफर का एक शेर है− कितना है बदनसीब जफर दफन के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू ए यार में
1857 की क्रांति का बड़ा नाम “साहेब-ए-आलम बहादुर” (लॉर्ड गवर्नर जनरल) जनरल बख्त खान हैं। वे इस क्रांति के यज्ञ में बरेली से आहुति देने निकले। उन्होंने दिल्ली में अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष का नेतृत्व किया। दिल्ली पतन के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। लखनऊ और शाहजहांपुर में विद्रोही बलों में शामिल हो अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ते रहे।
बख्त खान का जन्म बिजनौर के नजीबाबाद में हुआ था। बख्तखान रोहिल्ला पठान नजीबुदौला के भाई अब्दुल्ला खान के बेटे थे। 1817 के आसपास वे ईस्ट इंडिया कम्पनी में भर्ती हुए। पहले अफगान युद्ध में वे बहुत ही बहादुरी के साथ लड़े। उनकी बहादुरी देख उन्हें सूबेदार बना दिया गया। 40 वर्षों तक बंगाल में घुड़सवारी करके और पहले एंग्लो-अफगान युद्ध को देखकर जनरल बख्त खान ने काफी अनुभव लिया।
मेरठ में सैनिक विद्रोह के समय वे बरेली में तैनात थे। अपने आध्यात्मिक गुरू सरफराज अली के कहने पर वह आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। मई खत्म होते–होते बख्त खान एक क्रांतिकारी बन गए। बरेली में शुरूआती अव्यवस्था, लूटमार के बाद बख्त खान को क्रांतिकारियों का नेता घोषित किया।
एक जुलाई को बख्त खान अपनी फौज और चार हजार मुस्लिम लड़ाकों के साथ दिल्ली पंहुचे। इसी समय बहादुर शाह जफर को देश का सम्राट घोषित किया गया। सम्राट के बड़े बेटे मिर्जा मुगल को मुख्य जनरल का खिताब दिया गया। बख्त खान को सम्राट शाह जफर ने उन्हें सेना के वास्तविक अधिकार और साहेब ए आलम बहादुर का खिताब दिया।
इसके बाद बख्त खान के नेतृत्व में लंबी जंग लड़ी गई। बख्त खान ने बहादुर शाह जफर को सुरक्षा प्रदान की। दिल्ली को अच्छा प्रशासन देने की कोशिश की। लेकिन दूसरे स्थान से आए सैनिक और राजपरिवार तथा दरबार के कुछ व्यक्तियों के षडयंत्र के आगे कोई बस न चला। अंग्रेजों की ओर से राजा बहादुरशाह जफर के आत्मसमर्पण के प्रयास हो रहे थे। षडयंत्र के तहत 20 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार कर रंगून जेल भेज दिया।
इसके बख्त खान ने दिल्ली छोड़ दी। वह लखनऊ और शाहजहांपुर में विद्रोही बलों में शामिल हो अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ते रहे। अंतिम दिनों में बख्त खान स्वात घाटी में बस गए। 13 मई 1859 को गंभीर रूप से घायल हो गए। बख्त खान को वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में दफनाया गया।
इस तरह बिजनौर की सरजमीं पर जन्मे बख्त खान को जन्मस्थान पर कोई यादगार नहीं। बख्त खान की पैदायश का नजीबुद्दौला के परिवार का महल तो अंग्रेजों ने जनपद में दुबारा काबू पाते ही बारूद से तहस−नहस कर दिया था। अब तो महल के नाम पर यह मुहल्ला महल सराय हो गया। महल के अगले भाग में पुलिस थाना बन गया।
इस महल का गेट और कुछ हिस्सा ही शेष बचा है, बाकी कहीं−कहीं कोई टूटी फूटी दीवार दिखाई देती है। शेष कोई पहचान नहीं। कोई जानता भी नहीं कि बख्त खान कहां पैदा हुए थे। देशवासी तो अलग उनके जिले और शहरवासी ही आजादी के इस वीर लड़ाके को भुला बैठे। पाकिस्तान में उनपर 1979 में जनरल बख्त खान के नाम से फिल्म बनी पर अपना देश इस वीर को भुला बैठा है
बिजनौर की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों को देखने के लिए आप हमारे यू टयूब चैनल bijnor express पर भी जुड़ सकते हैं लिंक नीचे मौजूद हैं
अशोक मधुप जी वह तैय्यब अली
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
©Bijnor express