▪️इतिहास के झरोखे में अफगानिस्तान और भारत लजीज बासमती और हंसराज की महक अफगान बादशाह देहरादून छोड़ गए थे
बिजनौर के खादर क्षेत्र मे हंसराज प्रजाति का चावल बड़े पैमाने पर उगाया जाता था हल्का लाल रंग लिए हुए चावल की यह प्रजाति कभी बिजनौर के किसानों के दिलों पर राज करती थी वर्तमान में हंसराज चावल कि यह प्रजाति कहीं दिखाई नहीं देती इक्का-दुक्का किसान ही अब इस हंसराज प्रजाति के चावल को उगाते हैं कृषि विभाग से भी इस प्रजाति का बीज मिलना बंद सा हो गया है
चावल का इतिहास भी मानव जाती के इतिहास की तरह दिलचस्प है इसके वजूद को लेकर दुनियाभर के तमाम देश अलग अलग दावा करते हैं कि इसकी पैदाइश हमारे यहां हुई दावा करने वाले देशों के खोजकर्ता नए नए सबूत निकालकर लाते रहते हैं भारत भी ख़ुद को चावल का जनक होने का मज़बूत दावा पेश करता है यानी इस बात पर आजतक विवाद ही है कि वह कौन-सा देश है जहां के मानव ने चावल को सबसे पहले पहचाना और खेती शुरू की थी
जनपद बिजनौर के नजदीक हस्तिनापुर मे उत्खनन के दौरान लगभग 3200 वर्ष पुराने मिट्टी के गेरुआ रंग के पात्र में चावल के प्रमाण मिले है मिट्टी के इस विशेष बर्तन में जले हुए चावल का टुकड़ा मिला था यह भारत में चावल मिलने का अब तक का सबसे पुराना प्रमाण माना गया है उत्खनन के दौरान मिट्टी को बारीक छलने से छानने पर मिले चावल से अनुमान लगाया जा रहा है कि इस क्षेत्र में पौराणिक काल में अधिकांश चावल की खेती होती रही होगी
यजुर्वेद में भी चावल की पांच प्रजातियों का उल्लेख मिलता है गर्मी के चावल को शष्टिका बरसात के चावल को वर्षिका और पतझड़ के चावल को शरद और शीत ऋतु के चावल को हिमातंका कहा जाता था
प्राचीन भारत में चावल से कई तरह की मिठाइयां बनाई जाती थीं जो धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है सुश्रुत ने विश्यन्डका नाम की एक डिश का उल्लेख किया है जिसमें पहले चावल को घी में हल्का तल कर चावल में दूध और राब डालकर इस मिश्रण को तब तक पकाया जाता था जब तक कि वह गाढ़ा नहीं हो जाता था यही खीर का प्रारंभिक अवतार था इसी तरह की एक और डिश उत्रैका का भी उल्लेख मिलता है जिसमें चावल के आटे को मिलाया जाता था वह पुपालिका नामक डिश कहताली थी यह एक तरह का केक होता था
अमीरों बादशाहों की रसोइयों को महकाने वाली विख्यात बासमती और हंसराज के बीज देहरादून में उगाने वालो का भी कुछ अलग ही इतिहास हैं एक बार जब अफगान युद्ध में दोस्त मोहम्मद खान को निर्वासित कर देहरादून के पास मसूरी में लाया गया तो वह अपने साथ अपनी पंदीदा लजीज बिरयानी के लिए स्वादिष्ट और खुशबूदार हंसराज प्रजाति के चावल का बीज भी लाये थे
हंसराज और बासमती चाचल को जब देहरादून के किसानों ने जब उगाना शुरू किया तो उसकी खुशबू के कारण उसे बासमती और हंसराज नाम दिया गया और उसकी खुशबू के साथ ही उसकी ख्याति भी फैलती गई। भारत के खेतों में बासमती महकने लग लगी और आज विश्व के बासमती निर्यात में भारत का 70 प्रतिशत योगदान है। बिडम्बना ऐसी कि बासमती की जन्मभूमि के खेतों में इमारतों के जंगल उगने से देहरादूनी बासमती नाम की ही रह गई है।
नोट:-हंसराज और बासमती कि खेती सबसे ज्यादा रोहिलखंड एवं तराई क्षेत्र में की जाती थी तराई क्षेत्र में बरेली एवं पीलीभीत और बिजनौर जिला इसके सबसे बड़े उत्त्पदक क्षेत्र थे परन्तु बढ़ती लागत के चलते बिजनौर की उपजाऊ जमीन से अब हंसराज की खुशबू खत्म हो चुकी है हंसराज की पैदावार की मुश्किलें और बाजार की खराब हालत से किसानों का इससे मोहभंग हो गया हैं अब किसानों ने इसकी पैदावार ही बंद कर दूसरे किस्म के चावल उगाने शुरू कर दिये हैं अब केवल गिने चुने शौक़ीन किसान ही हंसराज प्रजाति के चावल उगाते है वो भी अपने निजी प्रयोग के लिए:
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